बिहार: तेज़ दिमाग, भारी राजनीति और पीछे छूटा विकास
सोनी लिव की चर्चित वेब सीरीज़ महारानी देखने के बाद मेरे भीतर जो सवाल उठा, वह किसी मनोरंजन से उपजी क्षणिक प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि एक लम्बे समय से भीतर दबे उस असहज सच का विस्तार था, जिसे बिहार को समझने वाला लगभग हर व्यक्ति कभी न कभी महसूस करता है, लेकिन अक्सर शब्दों में ढालने से बचता रहा है।
सवाल सुनने में सीधा लगता है, लेकिन उसका जवाब उतना ही उलझा हुआ है जितना बिहार की राजनीति खुद रही है।
वह बिहार, जिसने भारतीय राजनीति को सामाजिक न्याय, सत्ता संतुलन और जनाधार की परिभाषा सिखाई, वह आज भी आर्थिक और विकास के अन्य पैमानों पर देश के पिछड़े राज्यों में क्यों गिना जाता है?
राजनीति में प्रमुखता, विकास में दरकिनार
अगर केवल राजनीतिक प्रभाव की बात करें, तो बिहार को कभी हल्के में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि देश की कुल आबादी का लगभग 8.6 प्रतिशत हिस्सा रखने वाला यह राज्य लोकसभा में 40 सांसद भेजता है, जो किसी भी केंद्र सरकार के लिए निर्णायक संख्या मानी जाती है, और यही कारण है कि दिल्ली की सत्ता की राजनीति में बिहार हमेशा चर्चा के केंद्र में रहा है।
आज भी सच्चाई यही है कि बिहार के दो क्षेत्रीय दल अगर चाहें, तो दिल्ली की सत्ता का संतुलन कुछ ही घंटों में बिगड़ सकता है।
सामाजिक न्याय की राजनीति, मंडल आयोग के प्रभाव, जातीय प्रतिनिधित्व और सत्ता में वंचित वर्गों की भागीदारी जैसे बड़े राजनीतिक प्रयोग बिहार की धरती पर ही हुए, जिन्होंने पूरे देश की राजनीति की दिशा बदल दी, लेकिन जब यही राजनीतिक चेतना विकास की कसौटी पर रखी जाती है, तो तस्वीर अचानक असहज और विरोधाभासी दिखाई देने लगती है।
आर्थिक आंकड़े जो असहज कर देते हैं
भारत की औसत प्रति व्यक्ति आय जहाँ आज लगभग ₹1.9 लाख प्रति वर्ष के आसपास पहुँच चुकी है, वहीं बिहार की प्रति व्यक्ति आय अब भी ₹60,000 से ₹65,000 के बीच सिमटी हुई है, जो यह साफ़ संकेत देती है कि आर्थिक विकास की दौड़ में बिहार राष्ट्रीय औसत से लगभग तीन गुना पीछे चल रहा है, और इन आँकड़ों को देखकर यह समझ आता है कि यह सिर्फ़ नंबर नहीं हैं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में महसूस होने वाली दूरी है।
औद्योगिक निवेश के आँकड़े इस अंतर को और स्पष्ट कर देते हैं, क्योंकि देश के कुल संगठित औद्योगिक निवेश में बिहार की हिस्सेदारी 1 प्रतिशत से भी कम है, जिसका सीधा असर यह होता है कि राज्य में रोज़गार के अवसर सीमित रहते हैं और हर साल लाखों युवा काम की तलाश में दिल्ली, मुंबई, पुणे, बेंगलुरु और विदेशों की ओर पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह पलायन अब सिर्फ़ शारीरिक श्रम तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पढ़े-लिखे और कुशल युवाओं को भी बिहार से बाहर धकेल चुका है।
शिक्षा: संख्या बढ़ी, गुणवत्ता अब भी सवाल
यह सच है कि पिछले दो दशकों में बिहार की साक्षरता दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो वर्ष 2001 में लगभग 47 प्रतिशत से बढ़कर आज 63–65 प्रतिशत के आसपास पहुँच चुकी है, लेकिन केवल साक्षरता का बढ़ना किसी राज्य को ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था नहीं बना देता।
उच्च शिक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण और शोध आधारित संस्थानों की संख्या और गुणवत्ता के मामले में बिहार आज भी राष्ट्रीय औसत से पीछे है, और यही कारण है कि बिहार के मेधावी छात्र देश के शीर्ष संस्थानों में बड़ी संख्या में पहुँचते तो हैं, लेकिन वे संस्थान लगभग हमेशा बिहार की भौगोलिक सीमाओं के बाहर स्थित होते हैं।
दो बिहार: कॉरपोरेट ग्लास और ढाबे की धूल
यही वह विरोधाभास है, जिसे देखकर कई बार गर्व और शर्म दोनों एक साथ महसूस होते हैं।
जब मैं देश के बड़े शहरों में, बड़े-बड़े 5-Star होटलों में जाता हूँ, तो वहाँ ऐसे अनेक प्रोफेशनल्स दिखाई देते हैं, जिनकी अंग्रेज़ी सधी हुई होती है, जिनकी ड्रेसिंग में नफ़ासत झलकती है और जिनकी बातचीत आत्मविश्वास से भरी होती है, और जब परिचय के दौरान यह पता चलता है कि वे बिहार से हैं, तो मन में स्वभाविक रूप से गर्व की अनुभूति होती है।
लेकिन कुछ ही दिनों बाद, जब किसी हाईवे के ढाबे पर गाड़ी रुकती है, तो वही बिहारी पहचान एक बिल्कुल अलग रूप में सामने आती है- ट्रे उठाए हुए, थकी हुई आँखों के साथ, सीमित विकल्पों में अपनी ज़िंदगी को समेटे हुए- और तब यह अहसास और गहरा हो जाता है कि यह फर्क प्रतिभा का नहीं, बल्कि अवसरों और व्यवस्था का है।
राजनीति ने पहचान दी, लेकिन रास्ता नहीं
बिहार की राजनीति ने यह ऐतिहासिक काम ज़रूर किया कि उसने समाज के पिछड़े से पिछड़े वर्गों को आवाज़ दी, प्रतिनिधित्व दिया और सत्ता के केंद्र तक पहुँचने का आत्मविश्वास दिया, लेकिन उसी राजनीति ने धीरे-धीरे यह मान लिया कि पहचान की राजनीति ही विकास की राजनीति का विकल्प बन सकती है।
सत्ता संतुलन, जातीय गणित और राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाइयों में जो ऊर्जा दशकों तक खर्च होती रही, अगर उसका एक हिस्सा भी उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचे की मज़बूत संस्थागत संरचना खड़ी करने में लगाया गया होता, तो आज बिहार की तस्वीर शायद बिल्कुल अलग होती।
सबसे भारी नुकसान : Brain drain
बिहार का सबसे बड़ा नुकसान सड़कों की कमी या फैक्ट्रियों के अभाव से नहीं हुआ, बल्कि उस दिमाग के पलायन से हुआ, जो नीतियाँ बना सकता था, संस्थाएँ खड़ी कर सकता था और स्थानीय विकास की रीढ़ बन सकता था।
आज वही दिमाग देश और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भारत का नाम रोशन कर रहा है, जबकि बिहार स्वयं उसी बौद्धिक पूँजी की कमी से जूझ रहा है, जो कभी उसकी सबसे बड़ी ताक़त थी।
व्यक्तित्व बने, संस्थाएँ नहीं
बिहार ने हमेशा करिश्माई नेता दिए, बड़े आंदोलन देखे और राजनीतिक इतिहास रचा, लेकिन मजबूत और टिकाऊ संस्थाएँ- जैसे गुणवत्तापूर्ण स्कूल, आधुनिक अस्पताल, औद्योगिक क्लस्टर और शोध केंद्र- कभी उस अनुपात में विकसित नहीं हो पाईं।
जब संस्थाएँ कमजोर होती हैं, तो सबसे ईमानदार और सक्षम नेतृत्व भी कुछ नहीं कर पाता, और विकास व्यक्तियों के साथ आता-जाता रह जाता है।
निष्कर्ष: दिमाग अब भी ज़िंदा है
इसके बावजूद बिहार को खारिज कर देना न सिर्फ़ जल्दबाज़ी होगी, बल्कि ऐतिहासिक भूल भी, क्योंकि वही दिमाग जिसने देश को राजनीति सिखाईं, आज भी ज़िंदा है, सवाल पूछ रहा है और जवाब माँग रहा है।
जिस दिन बिहार की राजनीति सत्ता से आगे बढ़कर संस्थाएँ बनाने पर केंद्रित होगी, और जिस दिन यहाँ के दिमाग को अपने ही राज्य में आगे बढ़ने का मंच मिलेगा, उस दिन बिहार “पिछड़ेपन” की चर्चा का विषय नहीं रहेगा, बल्कि भारत के भविष्य की बहस का केंद्र बनेगा।
समस्या कभी दिमाग की रही हीं नहीं, समस्या यह रही है कि बिहार ने अपने ही सबसे कीमती संसाधन को बाहर जाने देना एक आम बात मान लिया।
“सोच में सबसे ऊपर, पर धरती से जुड़ा व्यवहार हूँ,
मैं अकेला सब पर भारी - हाँ, मैं बिहार हूँ।”






Comments
Post a Comment